ना मैं वाक़िफ़ हू लफ्ज़ मोहब्बत से
ना ही इल्म मुझे इज़हार-ए-मोहब्बत का है
मेरी आँखों को पढ़ना आता है तुम्हे
बस एक शोंक पुराना इबादत का है
तेरी आँखों में खो जौ मैं ये झील से भी गहरी हैं
एक पल भी नही ठहरती वो मेरी आँखें तुझपे ही ठहरी हैं
गर ये गुनाह है मेरा तो सुना तू ही फैंसला बिना किसी तारीख के
पूरा कर जो काम एक बड़ी पंचायत का है
मैं था सीधा सादा बंदा मगर तू भी सरल बहुत
मैं देर कर देता था समझने मे और तुझमे समझ बहुत
तू अभी भी कर लेती है हर काम मुझसे पूछे बिना
मुझे इंतेज़ार आज भी तेरी इज़ाज़त का है
तेरी मासूमियत लफ़्ज़ों में कहाँ बयाँ होती है
इश्क़ भी वहीं पनपता है अक्षर जहाँ हयां होती है
तुम ही मुझे वाकिफ़ कराती हो इस बदलती दुनिया से
वरना रवि तो बस गुलाम पुरानी रिवायत का है
मेरी ग़लतिया भी तुझे नादानी लगती है
मेरी अटपटी बाते भी तुझे कहानी लगती है
तू कर देती है हर भूल माफ़ मेरी
मेरा हर एक कदम बस जैसे शिकायत का है
मैं नींद से जागूं या फिर सोना चाहूं
हर कीमत पर बस तेरा होना चाहूं
कर ले अगर बस मे हैं तेरे
ये सौदा बड़ा किफायत का है
ना मैं वाक़िफ़ हू लफ्ज़ मोहब्बत से
ना ही इल्म मुझे इज़हार-ए-मोहब्बत का है
मेरी आँखों को पढ़ना आता है तुम्हे
बस एक शोंक पुराना इबादत का है ......
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